‘नशामुक्त कैंपस’ की ओर एक ज़रूरी क़दम, मगर क्या इतना काफ़ी है?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘   

भारत आज एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है — जहां एक तरफ़ देश की युवा आबादी उसे दुनिया की सबसे बड़ी जनशक्ति वाला राष्ट्र बनाती है, वहीं दूसरी तरफ़ वही युवा वर्ग तेजी से तम्बाकू और नशे की गिरफ्त में भी आता जा रहा है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा तम्बाकू और अन्य नशीले पदार्थों से शैक्षणिक संस्थानों को मुक्त करने के लिए शुरू किया गया राष्ट्रव्यापी अभियान इसी चुनौती के जवाब में एक स्वागत योग्य प्रयास है। लेकिन क्या यह क़दम अकेले ही पर्याप्त है? और क्या इसे ज़मीनी स्तर पर प्रभावशाली ढंग से लागू किया जा पाएगा?

तथ्य डराते हैं, और कार्रवाई की ज़रूरत बताते हैं

ग्लोबल यूथ टोबैको सर्वे 2019 के अनुसार, 13 से 15 वर्ष की उम्र के करीब 8.5 प्रतिशत छात्र किसी न किसी रूप में तम्बाकू का सेवन कर रहे थे। इससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि हर दिन 5500 से अधिक बच्चे तम्बाकू सेवन शुरू कर देते हैं। ये आँकड़े सिर्फ़ एक आदत की बात नहीं करते, ये हमारे भविष्य के स्वास्थ्य, उत्पादकता और सामाजिक संरचना को प्रभावित करने वाले संकेत हैं।

युवाओं के जीवन में तम्बाकू अक्सर “प्रवेश द्वार” की भूमिका निभाता है, जो धीरे-धीरे उन्हें अन्य गंभीर और घातक नशों की ओर धकेल सकता है। ऐसे में शैक्षणिक संस्थानों — यानी बच्चों और युवाओं की दूसरी दुनिया — को इन पदार्थों से पूरी तरह मुक्त करना बहुत ज़रूरी हो जाता है।

टीओएफईआई दिशानिर्देश: एक दिशा, लेकिन क्या ज़मीन तैयार है?

शिक्षा मंत्रालय द्वारा लागू किए जा रहे ‘तम्बाकू मुक्त शैक्षणिक संस्थान (TOFEI)’ के दिशा-निर्देश बिल्कुल सही दिशा में उठाया गया क़दम हैं। इसमें ‘100 गज की परिधि में तम्बाकू बिक्री पर रोक’, ‘परिसर में निगरानी’, ‘जागरूकता अभियान’, और ‘पीली रेखा खींचकर स्पष्ट परिभाषा’ जैसे उपाय शामिल हैं।

सुनने में ये सभी उपाय व्यावहारिक और स्पष्ट लगते हैं, मगर असली सवाल ये है कि क्या ज़मीनी स्तर पर इन्हें उतनी ही ईमानदारी और सख़्ती से लागू किया जाएगा?

गाँवों और कस्बों के स्कूलों के आसपास आज भी पान, सिगरेट और गुटखा की दुकानें आम हैं। स्कूल के शिक्षक और प्रधानाचार्य भी अक्सर इस तरह की गतिविधियों पर चुप्पी साध लेते हैं — या तो डर के कारण, या उदासीनता के चलते।

‘100 गज की पीली रेखा’ और उसकी हकीकत

दिशानिर्देशों में यह स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक शैक्षणिक संस्था के चारों ओर 100 गज की दूरी तक ‘तम्बाकू मुक्त क्षेत्र’ घोषित किया जाएगा और पीली रेखा से इसे चिन्हित किया जाएगा। यह विचार काफ़ी प्रभावशाली लगता है, लेकिन क्या स्थानीय प्रशासन और पुलिस तंत्र इसे गंभीरता से लेगा?

प्रश्न यह नहीं है कि यह नियम अच्छा है या नहीं, बल्कि यह है कि क्या यह लागू होगा?

ज़रूरत है कि स्कूलों और कॉलेजों के प्रिंसिपल, एसएमसी (स्कूल प्रबंधन समिति), माता-पिता, और स्थानीय समुदाय को इस प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रशिक्षित और प्रेरित किया जाए। पीली रेखा सिर्फ दीवार पर एक निशान नहीं, बल्कि समाज के लिए चेतावनी का चिन्ह बनना चाहिए।

शिक्षकों और छात्रों की भूमिका

शिक्षकों की भूमिका इस अभियान में सबसे अहम है। यदि शिक्षक खुद इन उत्पादों से परहेज़ नहीं करते, तो छात्रों पर उनका असर कैसे पड़ेगा? वहीं छात्र यदि इस अभियान के “ब्रांड एम्बेसडर” बनें — तो तम्बाकू के खिलाफ एक मज़बूत सामाजिक संदेश पैदा किया जा सकता है।

इसके लिए “तम्बाकू मॉनिटर” जैसी अवधारणाएँ स्कूलों में लागू की जानी चाहिए — जहां खुद छात्र अपने साथियों पर नज़र रखें और शिक्षकों के सहयोग से आवश्यक कार्रवाई सुनिश्चित करें।

जागरूकता नहीं, मानसिक बदलाव चाहिए

प्रश्नोत्तरी अभियान, पोस्टर, पेंटिंग प्रतियोगिता — ये सब जरूरी कदम हैं, लेकिन आज के बच्चे सिर्फ चेतावनी सुनकर नहीं बदलते। उन्हें “कूल” दिखने वाली लतें छोड़वाने के लिए हमें तम्बाकू और नशे के प्रति उनकी सोच को बदलना होगा।

जैसे विज्ञापन कंपनियाँ युवाओं को लुभाने के लिए सिगरेट को “स्वैग” का प्रतीक बनाती हैं, वैसे ही हमें स्कूलों में ऐसे “रोल मॉडल” खड़े करने होंगे जो तम्बाकू और नशे से दूर रहकर भी कूल हों, लीडर हों, प्रेरक हों।

अभिभावकों की जागरूकता: एक कड़ी जो अक्सर छूट जाती है

बच्चों की आदतों का बीज अक्सर घर से ही पड़ता है। यदि माँ-बाप खुद धूम्रपान करते हैं, या नशे को गंभीरता से नहीं लेते, तो बच्चों को समझाना और भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए स्कूलों को अभिभावकों की कार्यशालाएं (parent workshops) आयोजित करनी चाहिए, जिसमें उन्हें नशे के खतरे और उससे बचाव के उपायों की जानकारी दी जाए।

कानून प्रवर्तन: बिना डर के रिपोर्टिंग की ज़रूरत

दिशानिर्देशों में यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि स्कूल स्टाफ को स्थानीय पुलिस को सीधे रिपोर्ट करने की सुविधा दी जाए — बिना डर या दबाव के। यह सिर्फ कागज़ी बातें न रह जाएं, इसके लिए ज़रूरी है कि राज्यों में स्पष्ट एसओपी (Standard Operating Procedure) तैयार हो, और पुलिस विभागों को संवेदनशील बनाया जाए।

एक महीने का अभियान, लेकिन ज़िंदगीभर की ज़िम्मेदारी

31 मई से 26 जून तक चलने वाला यह अभियान सिर्फ एक शुरुआत है — और इसे एक ‘मुहिम’ से बढ़कर ‘संस्कृति’ का रूप देना होगा। यह सिर्फ मंत्रालय का या स्कूलों का काम नहीं है — यह हर नागरिक, हर समाज, और हर परिवार की जिम्मेदारी है।

क्या आगे का रास्ता है?

  1. स्थायी निगरानी तंत्र बने – सिर्फ एक महीने नहीं, पूरे साल नज़र रखने के लिए।

  2. नशामुक्त ब्रिगेड – स्कूलों में छात्रों की टीम जो नशा विरोधी गतिविधियों का संचालन करें।

  3. लोकल सर्वे – हर स्कूल साल में कम से कम एक बार तम्बाकू सेवन की स्थिति पर छात्रों का सर्वे करे।

  4. स्थानीय दुकानों पर जुर्माना – यदि वे 100 गज के दायरे में बेचते पाए जाएं, तो उन पर कार्रवाई सुनिश्चित हो।

  5. डिजिटल हेल्पलाइन – जहां छात्र गुमनाम रूप से नशा बेचने की सूचना दे सकें।

यह सिर्फ ‘निषेध’ नहीं, ‘संरक्षण’ की लड़ाई है

हमारा उद्देश्य सिर्फ तम्बाकू की बिक्री रोकना नहीं होना चाहिए, बल्कि उन बच्चों को संरक्षित करना है जो अपने जीवन की सबसे संवेदनशील अवस्था में हैं।

उनके मन, शरीर और भविष्य को सुरक्षित रखना सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं — यह हर शिक्षक, हर माता-पिता, हर स्थानीय नागरिक का कर्तव्य है। अगर हम मिलकर यह लड़ाई लड़ें, तो ‘नशामुक्त भारत’ सिर्फ एक सपना नहीं, एक सच्चाई बन सकता है।

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