क्या झारखंड पुलिस जनता की भी सच्ची साथी बन सकती है?

सम्पादकीय: पुर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘   

झारखंड पुलिस ने नक्सलवाद के खिलाफ जो ऐतिहासिक विजय प्राप्त की है, वह न केवल राज्य के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत है। पिछले एक दशक में राज्य के 113 थाना क्षेत्रों से नक्सलियों का सफाया कर देना मामूली उपलब्धि नहीं है। यह उस समर्पण, रणनीति और साहस का नतीजा है जो झारखंड पुलिस, कोबरा बटालियन, सीआरपीएफ और झारखंड जगुआर जैसे बलों ने दिन-रात दिखाया। लेकिन सवाल उठता है—क्या यही सिद्दत, यही ईमानदारी, यही कर्तव्यनिष्ठा पुलिस आम जनता के लिए नहीं दिखा सकती?

जिस प्रतिबद्धता से नक्सलियों के खिलाफ गढ़वा, पलामू, चतरा, लोहरदगा, खूंटी और चाईबासा जैसे जिलों में कार्रवाई की गई, क्या उसी निष्ठा से आम नागरिकों की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता? जिस तरह सुरक्षा बलों ने अपने प्राणों की आहुति देकर राज्य को नक्सल-मुक्त बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए, क्या उसी भावना से थाने में आने वाले पीड़ितों के साथ संवेदनशीलता नहीं बरती जा सकती?

झारखंड पुलिस का नक्सलवाद पर नियंत्रण कोई संयोग नहीं, बल्कि दीर्घकालिक रणनीति, मजबूत खुफिया व्यवस्था और ज़मीन पर डटे जवानों की कुर्बानी का परिणाम है। लेकिन जब यही जनता किसी चोरी की रिपोर्ट लिखवाने, महिला उत्पीड़न का मामला दर्ज कराने या जमीन विवाद सुलझाने के लिए थाने पहुंचती है तो उसका अनुभव अक्सर निराशाजनक होता है। वहां रिश्वत, टालमटोल और कभी-कभी अपमान भी झेलना पड़ता है।

क्या यह विरोधाभास नहीं है कि एक ओर पुलिस जंगलों में छिपे हथियारबंद विद्रोहियों से लड़ती है और दूसरी ओर शहर के बीचोंबीच बैठे एक साधारण नागरिक को न्याय के लिए जूझना पड़ता है?

नक्सलियों के खात्मे में पुलिस की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति ने बड़ा काम किया। लेकिन क्या भ्रष्टाचार और पुलिसिया अकड़ के मामले में भी ऐसी ही ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति नहीं अपनाई जानी चाहिए? जब तक आमजन को यह विश्वास नहीं हो जाता कि पुलिस उनकी साथी है, उनकी रक्षक है—तब तक थानों और जनता के बीच की खाई नहीं पटेगी।

आम आदमी की शिकायत है कि पुलिस पहले से बने धारणाओं के आधार पर लोगों को आंकती है। गरीब, आदिवासी, दलित या मजदूर वर्ग का व्यक्ति थाने पहुंचता है तो उसे पहले दोषी समझ लिया जाता है, पीड़ित नहीं। क्या इस सोच को बदलने का समय नहीं आ गया है?

झारखंड पुलिस ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में न केवल सैन्य कार्रवाई की, बल्कि वहां विकास कार्यों को प्राथमिकता दी—स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य सेवा और रोजगार योजनाएं। तो क्यों न शहरी और ग्रामीण थानों में भी ऐसी मानसिक क्रांति लाई जाए, जिसमें इंसाफ, संवेदना और पारदर्शिता प्राथमिकताएं बनें?

यहां हम यह भी नहीं भूल सकते कि नक्सलवाद पर विजय किसी एक ऑपरेशन या नीति का नतीजा नहीं था। इसके पीछे निरंतरता थी, निरीक्षण था, और जनसंपर्क था। क्या वही मॉडल पुलिस सुधार के लिए नहीं अपनाया जा सकता? क्यों न हर थाने में एक शिकायत समाधान समिति हो, क्यों न हर महीने थाने में ‘जनता संवाद दिवस’ मनाया जाए? क्यों न थाना प्रभारी के प्रदर्शन का मूल्यांकन जनता की संतुष्टि के आधार पर हो?

जब झारखंड पुलिस ने 2014 में 39 नक्सलियों को मार गिराया और 2024 में यह संख्या घटकर 11 रह गई, तो यह साफ संकेत है कि उन्होंने अपनी रणनीति में सफलता पाई है। अब जब पुलिस को नक्सलियों से कम खतरा है, तो उसका फोकस अब आम नागरिकों के हित में स्थानांतरित क्यों नहीं हो सकता?

पुलिस की वर्दी केवल अधिकार का प्रतीक नहीं, जिम्मेदारी का भी है। और यह जिम्मेदारी केवल अपराध नियंत्रण की नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की भी है। क्या पुलिस अधिकारी कभी यह सोचते हैं कि जनता उन्हें देखकर डर क्यों जाती है? क्या यह डर अपराधियों के लिए होना चाहिए था या आम नागरिकों के लिए?

इस सवाल का जवाब केवल अफसरशाही के दस्तावेजों में नहीं, जनता के अनुभवों में छिपा है। अगर पुलिस अधिकारी वास्तव में परिवर्तन चाहते हैं तो उन्हें अपने विभाग में पारदर्शिता, जवाबदेही और सेवा भावना को संस्थागत करना होगा।

आज झारखंड पुलिस के पास एक ऐतिहासिक मौका है। उन्होंने दिखाया है कि असंभव को भी मुमकिन किया जा सकता है। अब जरूरत है उस भावना को जनता की सेवा में लगाने की। अगर नक्सलवाद जैसी गहरी जड़ें रखने वाली समस्या को कुचला जा सकता है, तो भ्रष्टाचार और पुलिस के भीतर की सड़ांध को भी जड़ से उखाड़ा जा सकता है।

जनता पूछ रही है:

  • जब पुलिस जंगल में बंदूक लेकर हमारी सुरक्षा के लिए जान हथेली पर रख सकती है, तो क्या वह थाना परिसर में हमारी इज्जत की रक्षा नहीं कर सकती?

  • जब पुलिस नक्सलियों के खिलाफ योजनाबद्ध ऑपरेशन चला सकती है, तो क्या वह थाने के भीतर फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ठोस अभियान नहीं चला सकती?

  • जब पुलिस नक्सल इलाकों में विकास को प्राथमिकता दे सकती है, तो क्या वह न्याय की डगर पर आम लोगों के लिए संवेदनशील और सहायक नहीं बन सकती?

अंत में, झारखंड पुलिस के समर्पित जवानों और अधिकारियों को सलाम, जिन्होंने राज्य को एक बेहतर, सुरक्षित झारखंड देने की दिशा में जोश और जुनून से काम किया। लेकिन साथ ही, यह अपील भी है कि वही जुनून अब उस जनता के लिए दिखाया जाए, जिनकी सेवा की शपथ आपने ली है।

पुलिस को दुश्मनों से नहीं, अपनों से प्यार दिखाना अब अगला मील का पत्थर होना चाहिए। तभी झारखंड वाकई शांतिपूर्ण, न्यायपूर्ण और भरोसेमंद राज्य बन सकेगा—जहाँ पुलिस सचमुच जनता की “मित्र” बनकर उभरेगी।

Translate »