– पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
भाई, बुरा लगे तो इसे बस एक हास-परिहास समझ लीजिएगा। वैसे बात में बिल्कुल सच्चाई नहीं है—ऐसा भी नहीं है।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि राष्ट्रीय महोत्सवों के आसपास सभी थानों के पुलिस अधिकारी आयोजन दिवस के एक सप्ताह से ही अति व्यस्त हो जाते हैं और अपने अधीनस्थों पर चौकी सौंपकर थाना प्रांगण से मानो विलुप्त हो जाते हैं। स्वाभाविक है! और प्रैक्टिकल भी। ऐसे आयोजनों से पूर्व सुरक्षा मानकों का सुदृढ़ीकरण सुनिश्चित करना परमावश्यक है।
सही बात है कि हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों के आते ही देशभर में उल्लास और देशभक्ति का माहौल बनता है। सरकारी दफ्तरों से लेकर स्कूल-कॉलेज तक राष्ट्रप्रेम के रंग में डूबे नजर आते हैं। पुलिस थानों में भी तैयारी ज़ोरों पर होती है — “झंडा ऊँचा रहे हमारा” वाली भावना के साथ-साथ “झंडा सीधे चढ़े, रस्सी न फँसे” जैसी तकनीकी चिंताएँ भी प्रमुख हो जाती हैं।
व्यवस्था, सुरक्षा और सलामी की गंभीरता के बीच कुछ और भी होता है, जो उतना ही स्थायी है जितना पुलिस की वर्दी पर स्टार — और वह है पत्रकारों से “स्वस्थ दूरी”।
हर थाना इन पर्वों पर अपनी सीमित छत के नीचे तिरंगा फहराता है, कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं, और कुछ “माल्यार्पण कर लो जी” वाले पल भी आते हैं। पत्रकार इसमें केवल फोटो खींचने नहीं आते — वे उम्मीद लेकर आते हैं कि इस बार थानेदार जी ‘बजट’ से थोड़ा सा प्यार बाँटेंगे।
अब ये बजट कोई रक्षा बजट नहीं, बल्कि छोटा सा विज्ञापन बजट होता है — दो कॉलम का बधाई संदेश, जिसमें एक तस्वीर, एक झंडा और एक गंभीर मुद्रा होती है। लेकिन हाल के वर्षों में कई थानेदारों को लगता है कि “अगर पत्रकार दिख ही न जाएँ, तो विज्ञापन भी न देना पड़े।” कुछ अधिकारी तो इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें पत्रकारों के कॉल तक उठाने की फुर्सत नहीं होती।
पत्रकार दिन-रात की भागदौड़, चार्ज खत्म होता मोबाइल और पसीने से भीगी डायरी लेकर आते हैं — सिर्फ इसलिए कि उन्हें सूचना देनी है। लेकिन महीने के आखिर में, जब मोबाइल रिचार्ज और बच्चे की फीस साथ-साथ खड़े हों, तब ‘पर्वीय विज्ञापन’ एक उम्मीद बन जाता है। जब थानेदार जी यह कहकर टाल देते हैं कि “बाद में मिलिएगा,” तो पत्रकार का कैमरा तो ON रहता है, लेकिन चेहरा OFF हो जाता है।
थानेदार और पत्रकार — दोनों जनता की सेवा में लगे हैं। फर्क बस इतना है कि एक वर्दी पहनता है, दूसरा दबाव। एक के पास वायरलेस है, दूसरे के पास वॉट्सऐप ग्रुप। दोनों अपने-अपने तरीके से व्यवस्था बनाए रखते हैं। ऐसे में पर्वों पर अगर दोनों एक-दूसरे की भूमिका का सम्मान करें, तो न केवल तस्वीरें अच्छी आएँगी, बल्कि रिश्ते भी लंबे चलेंगे।
पत्रकार न केवल सूचनाओं के वाहक हैं, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका निभाते हैं। छोटे शहरों और कस्बों में काम करने वाले पत्रकारों के लिए राष्ट्रीय पर्वों पर मिलने वाले छोटे-बड़े विज्ञापन न केवल एक आर्थिक सहायता होते हैं, बल्कि प्रशासन और मीडिया के बीच संबंध की स्वीकृति भी। जब प्रशासनिक अधिकारी इस संवाद से ही बचने लगते हैं, तो यह केवल विज्ञापन की बात नहीं रह जाती — यह उस आपसी विश्वास और सहयोग की नींव को ही कमजोर करने जैसा होता है।
यह समझना ज़रूरी है कि पुलिस विभाग और पत्रकार — दोनों ही राष्ट्र की सेवा में जुटे हैं। एक आंतरिक सुरक्षा और व्यवस्था के माध्यम से, तो दूसरा सूचना, संवाद और विमर्श के माध्यम से। अगर राष्ट्रीय पर्वों जैसे अवसरों पर दोनों वर्ग एक-दूसरे की उपस्थिति और योगदान का सम्मान नहीं करेंगे, तो न केवल आपसी विश्वास में दरार आएगी, बल्कि समाज में एक ग़लत संदेश भी जाएगा।
पुलिस अधिकारियों को यह समझने की ज़रूरत है कि स्थानीय पत्रकार केवल कवरेज के लिए नहीं आते — वे उस लोकतांत्रिक संवाद का हिस्सा होते हैं, जो प्रशासन और जनता के बीच सेतु का कार्य करता है। उन्हें संवाद से वंचित करना या जानबूझकर उपेक्षित करना, दीर्घकालिक रूप से प्रशासनिक छवि को नुकसान पहुँचा सकता है।
ऐसे थाना प्रभारी अगर इस सुवसर के रूप में न देखें कि “थाना प्रांगण में रहो ही नहीं, कि स्थानीय पत्रकारों को विज्ञापन/विज्ञापन राशि देनी ही न पड़े,” तो बेहतर होगा।
ऐसे महानुभावों से निवेदन है कि जो पत्रकार सालों भर इनके साथ हमेशा तत्पर रहते हैं, उनके प्रति इतनी संवेदना तो होनी ही चाहिए कि इन्हें साल में ऐसे दो-चार मौके पर चार-पाँच हज़ार के विज्ञापन देकर इनके परिश्रम को सराहा ही जा सकता है।
राष्ट्रीय पर्व आत्ममंथन और एकता के अवसर होते हैं। ऐसे में अगर थानेदार जी “हम बहुत व्यस्त हैं” की जगह “भाई, आओ, एक कप चाय हो जाए” कह दें — और पत्रकार भी “विज्ञापन नहीं, तो कवरेज नहीं” की तर्ज़ पर थोड़ी समझदारी दिखाएँ — तो ये पर्व और भी स्मरणीय बन सकते हैं।
अंत में यही कहा जा सकता है कि विज्ञापन कोई कृपा नहीं — संवाद का प्रतीक है, और संवाद ही लोकतंत्र का पहला प्रेमपत्र है।
थानेदार जी, पत्रकारों से प्रेम रखें — वे किसी और के नहीं, आपके ही इलाके के हैं!